Sunday 19 September 2010

कुछ अनकही सी...

कुछ अनकही सी है,
तुम्हारे और मेरे बीच...
शायद एक अहसास,
जिसे कभी शब्द नहीं मिल सके...

मेरी आंखें जुबान बन गई,
ना जाने कितने लफ्ज उतरते चले गए...
लेकिन तुमने तो अपने दिल पर,
हाथ रख लिए थे,
कैसे सुनाई देते तुम्हें...

तुमने भी तो कितनी बातें की थीं...
मैं तुम्हारी आंखों में खोया,
उन्हें कैसे सुन पाता...
दिल तो खुला छोड़ रखा था,
बस, कानों पर हाथ रख लिए थे...

शायद एक अहसास जन्म लेने लगा था...
मैंने उसकी खुशबू ली थी...
तुम उसकी गंध,
क्यों नहीं पहचान पाई...

शायद कुछ और महक ने
उसके तीखेपन को कम कर दिया था...

मेरे चेहरे पर तुम्हारा नाम,
उभरने लगा था...
और मैं तुम्हारे चेहरे पर,
अपनी पहचान तलाश रहा था...
कि अचानक गुम हो गई तुम
और वो कुछ अनकही सी...
हमारे बीच ही रह गई...
तुम चली गई हमेशा के लिए....






जागती आंखों के सपने...

जागती आंखों के सपने...
एक बार फिर देखे मैंने...
कमबख्त, आंखें खुली थी...
फिर भी, एक ख्वाब...

आंख खुलते ही...
सपने तो फिर भी टूट जाते हैं...
जागती आंखों के ख्वाब..
कैसे टूटे...
सपनों से झंझोड़कर...
कोई भी जगा जाता है...
आंखें खुली हो...
तो कोई कैसे रोके...
सपने देखने से...

ख्वाब देखने के बाद...
अक्सर ये सोचते हैं...
क्या छिपा था उसमें...
जागती आंखों के ख्वाब में...
 क्या खंगाले...?

मेरी फितरत...

दुनियाभर को शिकायत है मुझसे
और मुझे दुनिया से...
गर बदलना है तो दुनिया बदले,
अपनी फितरत बदलने की नहीं...

कमबख्त ये ख्वाब भी...

 सपने मत देखना !
आदत लग जाएगी...
फिर पूरी जिंदगी...
सपनों में ही गुजर जाएगी...

ऐसा क्यों...

शायद वो बारिश की बूंद ही थी...
जिसने मेरे अहसास को फिर से गीला कर दिया...
नहीं तो, तुम्हारी आंखों में पानी कहां बचा है...

Saturday 18 September 2010

एक तलाश

उस एक चेहरे की तलाश में...
कितना भटका हूं मैं...
और वो मिला भी...
लेकिन मैं उसकी आंखों में...
अपना अक्स देख पाता...
उसके पहले ही...
उसने अपनी आंखें फेर लीं...